Saturday, June 7, 2008

सवाल दुनिया की व्याख्या का नहीं, उसे बदलने का है

इस बार लेख का आरंभ अपने एक पुराने, आत्मीय और आदरणीय मित्र के पत्र से करना चाहता हूं। डॉ. धीरेन्द्र शर्मा से १९७४ में परिचय हुआ। तब दिनमान साप्ताहिक में संस्कृत भाषा पर मेरी एक टिप्पणी छपी थी-जिससे भारत-व्याकुल लोग मर्माहत थे। मेरे लेख के पक्ष और विपक्ष में महीनों टिप्पणियां प्रकाशित हुई। मुझे याद आता है जिन दो लोगों ने जम कर मेरा पक्ष लिया था उनमें डॉ. धीरेन्द्र शर्मा और बिहार के दिवंगत जननेता जगदेव प्रसाद थे। जगदेव प्रसाद मेरे छात्रावास पर बधाई देने आये और अपने शोषित अखबार में मेरी टिप्पणी को पुनर्प्रकाशित किया। डॉ. धीरेन्द्र शर्मा ने दिनमान में मेरे पक्ष में जोरदार टिप्पणी लिखी। वे संस्कृत के काव्यतीर्थ भी थे इसलिए उनकी टिप्पणी का विशेष महत्व था। तब पत्र द्वारा हम परिचित हुए और आपात काल के दिनों में हमारा मिलना भी हुआ। वे ऑक्सफोर्ड की प्राध्यापकी छोड़ कर कुछ करने के ख्याल से भारत आये थे और उन दिनों दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में फिलॉसफी के प्रोफेसर थे। वहीं से 'फिलॉसफी एण्ड सोशल एक्शन` अंग्रेजी त्रैमासिक भी निकालते थे। इसके उद्घाटन अंक में जयप्रकाश आंदोलन पर मैंने एक लेख लिखा था। विचारों से क्रांतिकारी और जुझारू व्यक्तित्व वाले डॉ. शर्मा से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। उनके माध्यम से देश-विदेश के अनेक विद्वानों से परिचय हुआ। लेकिन पिछले १२ वर्षों से उनसे मिलना नहीं हो सका था। 'जन विकल्प` को इंटरनेट पर देखकर उन्होंने प्रतिक्रिया दी और जब डाक से उन्हें पत्रिका भेजी गयी, तो उनका यह पत्र मिला। बिना किसी संपादन के उनका पत्र -प्रिय मणि,'जन विकल्प` की अगस्त २००७ प्रति हमारे पुराने नई दिल्ली के पते से लौटकर-आज ही देहरादून के पते पर मिली। पढ़ गया हूं। तुम्हारे प्रयासों के लिए सराहना के शब्द पर्याप्त नहीं होंगे। पिछली बार जब मिले थे-कुछ ख्याल आता है कि फिर मिलने की बात तय हुई थी।१. पहली बात-हमारा देहरादून का पता नोट कर लो।२. मौलिक प्रश्न है? २१वीं सदी में जब वैश्वीकरण की ओर हम बढ़ रहे हैं-तब दुनिया को जाति, धर्म, वर्ग और राष्ट्रवाद आदि के आधार पर बांटना विकास-विरोधी होगा।कोई जाति, धर्म, राष्ट्र-ऐसा नहीं है-जिसने दुर्बल और अपने ही असहाय लोगों पर अत्याचार और अन्याय न किया हो। गोरी जातियों ने लाखों-करोड़ों गोरी जातियों का नरसंहार किया-वो श्वेत, यूरोपियन और ईसाई थे जो जर्मन, फ्रांसिसी, अंग्रेज, स्कॉट, इतालवी और आयरिश-लाखों की तादाद में एक दूसरे से लड़े थे। और फिर सैकड़ों सालों से अरब-मुसलमान-ईराकी-ईरानी-शिया और सुन्नी-मजहब के नाम पर-मरते-मारते-आ रहे हैं। लेकिन आज ८५ प्रतिशत हिन्दू वोटों से एक तामील मुसलमान डॉ. कलाम को भारत का सर्वलोकप्रिय आम आदमी का राष्ट्रपति माना गया है।लेकिन एक बंगाली मुसलमान को पाकिस्तानी इस्लामी रिपब्लिकन का राष्ट्रपति नहीं बनने दिया और इस्लामिक सेना ने डॉ. मुज़ीबुर्रहमान और उसके परिवार का और हजारों बंगाली मुस्लिम बुद्धिजीवियों का कत्लेआम किया और आज तस्लीमा पर मौत का फतवा है।बौद्धकालीन प्राचीन स्मारकों को अफगानिस्तान, पाकिस्तान और काश्मीर में बमों से उड़ाया गया है क्यों?और एक लोकतंत्री संसद पर आत्मघाती हमला क्यों?मैं कई बार काश्मीर गया और उनकी जनमत की मांग का समर्थन किया। लेकिन मेरे भाषण के बीच में नारे लग रहे थे-'हंस के लिया है पाकिस्तान।लड़ के लेंगे हिन्दूस्तान।।मैं ये सब कुछ लिख रहा हूं तुम्हें-क्योंकि तुम संघर्षशील और चिन्तक-विचारप्रधान व्यक्तित्व हो। खून-खराबा बहुत हो चुका-जाति, धर्म और देशभक्ति के नाम पर। हमें वैज्ञानिक दृष्टि से सोचना और नये ढंग से वैज्ञानिक समाज की रचना करनी होगी। हम इधर पिछड़े पहाड़ी क्षेत्र में सक्रिय हैं, जहां दलित कम १० प्रतिशत और ऊंची जातियां-ब्राह्मण-राजपूत ८० प्रतिशत हैं। इन ८० प्रतिशत 'ऊंची` जात वालों में ६० प्रतिशत गरीब, अशिक्षित-बेरोजगार-शिवलिंग पर दूध-पानी-पशुबलि चढ़ाते हैं।पाकिस्तानी रोगियों का भारत में इलाज होता है। उन्हें हिन्दुओं का खून दिया जाता है। तो आज के वैज्ञानिक युग में जीवन रक्षा के लिये ठसववक हतवनच मिलना चाहिये। जाति, धर्म और देश जरूरी नहीं। आज एक बार दुर्घटना में घायल होकर एमरजेन्सी-अस्पताल में ले जाया गया तो डाक्टर मेरे Blood group जानना चाहेंगे। धर्म, जाति और राष्ट्रियता की identity का कोई मतलब नहीं होगा। Blood group में दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण-गोरा-काला-काश्‍मीरी- सिंहली सब एक हैं।कुछ हाल की लिखी भेज रहा हूं। यथावसर पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया लिखना।शुभकामनाएं-धीरेन्द्र शर्मा२१.८.२००७पत्र पढ़कर मैं देर तक सोचता रहा कि डॉ. शर्मा आखिर कहना क्या चाहते हैं? जाति, धर्म और देश को कौन जरूरी मान रहा है? खून के वैज्ञानिक ग्रुप के अलावे असली और कम-असली या फिर नस्लवादी उच्चताबोध की अहमन्यता कौन पाल रहे हैं? कौन हैं जो हमारे सामाजिक जीवन में बराबरी, भाईचारे और न्याय की जगह वर्चस्व की संस्कृति थोपना चाहते हैं?मुझे यह भी लगा कि उत्तराखंड की 'देवभूमि` में निवास करते हुए हमारे आदरणीय मित्र को कोई दैवी ज्ञान तो प्राप्त नहीं हो गया!लेकिन डॉ. शर्मा अकेले नहीं हैं। उनका पत्र जिन विचारों को उद्घाटित कर रहा है वह एक व्यक्ति नहीं, एक तबके की मानसिकता को हमारे सामने रखता है। सर्वोदय की यह भावना कोई नयी भी नहीं है। लेकिन इसके अपने खतरे हैं और उन पर विमर्श आवश्यक है। इसके अभाव में हम वर्चस्ववादियों के पक्ष में मैदान खाली कर देंगे और वर्चस्ववादी सबसे पहले निशाना डॉ. शर्मा जैसे लोगों का ही बनायेंगे। आर.एस.एस. की गोली से कम्युनिस्ट बाद में मारे गये, पहला निशाना तो सर्वोदयी गांधी ही बने।मैं, डॉ. शर्मा को चालू अर्थों में सर्वोदयी नहीं बना रहा। यह उनका अनादर होगा। वे मार्क्सवादी समझ के कायल रहे हैं। उनकी पत्रिका पर मार्क्स की उक्ति कवर पृष्ठ पर ही प्रकाशित होती थी।'दार्शनिकों ने अब तक विभिन्न तरीकों से विश्व की व्याख्या की है, लेकिन सवाल है कि इसे बदला कैसे जाय।`दुनिया को बदलने का-सामाजिक परिवर्तन का-सवाल अहम सवाल है। कुछ लोग इसी परिवर्तन को क्रांति कहते हैं। लेकिन क्रांति और परिवर्तन में एक अंतर है। क्रांति एक परिघटना की तरह आती है और तब आती है जब छोटे-मोटे परिवर्तनों से काम चलना संभव नहीं होता। यह स्वत: भी हो सकती है और प्रयास पूर्वक भी। लेकिन परिवर्तन तो जीवन के मेटाबोलिज्म की तरह सतत् चलता रहता है। कुछ व्यवस्थायें निहित स्वार्थों से निर्देशित होकर परिवर्तन की प्रक्रिया को बाधित करना चाहती हैं। इन व्यवस्थाओं को जब सफलता मिलती है, तब समाज में जड़ता आती है। फलस्वरूप संत्रास, अन्याय और वर्चस्व फैलता है। फिर इसके प्रतिरोध की शक्तियां उत्पन्न होती हैं। वर्चस्व और प्रतिरोध का यह सिलसिला इस तरह चलता रहता है।वर्चस्व और प्रतिरोध के द्वंद्व से समाज को मुक्त किया जा सकता है, बशर्ते सामाजिक परिवर्तन की नैसर्गिक प्रक्रिया को बाधित नहीं किया जाय। मैं समझता हूं डॉ. शर्मा यही चाहते हैं। और यहां मैं उनके साथ हूं। लेकिन यह उस समाज में संभव है जहां संभव समानता और न्याय स्थापित हो चुका है। आप ऐसे समाज में जहां विषमता काफी हो और एक तबका या कुछ तबके दूसरे तबके या ज्यादा तबकों पर वर्चस्व रखना चाहते हैं, वहां प्रतिरोध को स्थगित करना प्रतिगामी प्रयास होगा।डॉ. शर्मा कहते हैं 'खून-खराबा बहुत हो चुका-जाति धर्म और देश भक्ति के नाम पर। हमें वैज्ञानिक दृष्टि से सोचना और नये ढंग से वैज्ञानिक समाज की रचना करनी होगी।`आखिर कौन नहीं सोचता वैज्ञानिक से? आधुनिक भारत के इतिहास में जोतिबा फुले ने ब्राह्मणवादी वर्चस्व के प्रतिरोध को संगठित करने की कोशिश की। उन्हें यह अवसर अंग्रेजी राज द्वारा उत्पन्न सामाजिक स्थितियों के कारण मिल सका। वे जातिवाद के विरुद्ध थे। वर्चस्व के प्रतिरोध की यह ताकत शायद उन्होंने भक्ति आंदोलन से ली थी। उनके मानस शिष्य डॉ. आंबेडकर ने राष्ट्रीय आंदोलन में ब्रेक डालकर अपने जातिवाद विरोधी एजेन्डे को शामिल करना चाहा। (लाहौर के एक सम्मेलन १९३६ में प्रस्तुत उनका आलेख 'जातिवाद का उच्छेद` देखें।) उनका मजाक उड़ाया गया। ऐसा ही पेरियार आदि के साथ हुआ। राष्ट्रीय नेताओं ने तर्क दिया कि ये जातिवाद विरोध की बात कर रहे लोग साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन को डायलूट कर रहे हैं। जातिवाद का विरोध कर रहे नेताओं का कहना था कि हम आजादी को ज्यादा व्यापक अर्थों में लेते हैं। साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन ऊंची जाति के हिन्दू-मुसलमानों के हाथ में था और वे नहीं चाहते थे कि इससे ज्यादा लोग जुड़ें। वे साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के साथ सामंतवाद विरोधी आंदोलन को नत्थी करने के पक्ष में नहीं थे। जातिवाद का विरोध करने वाले नेता ज्यादा वैज्ञानिक सोच वाले थे, वे आधुनिकता के समर्थक थे, समानता के अग्रही थे। लेकिन वे हार गये।अगली पीढ़ी में इन्हीं हारे हुए लोगों ने जाति को आधार बनाकर सवर्ण वर्चस्व के विरुद्ध जिहाद छेड़ दिया। अब ऊंची जातियों के हारे हुए लोग जातिवाद विरोध और समानता के पाठ पढ़ रहे हैं। दलित-ओबीसी उन पर हंस रहे हैं। यही काम जब उनके नेता पचास साल पहले कर रहे थे, तो वो इसे उनकी मूर्खता मान कर हंस रहे थे।इसलिए ऐसा होता है कि जाति, धर्म और राष्ट्र को आधार बनाकर वर्चस्व प्राप्त जाति, धर्म और राष्ट्र का प्रतिरोध किया जाय। भक्ति आंदोलन में ईश्वर के नाम पर वर्णवादी वर्चस्व को चुनौती दी गयी-जात-पात पूछे नहीं कोय, हरि को भजै सो हरि का होय। हमारे राष्ट्रीय आंदोलन में एक उत्पीड़ित राष्ट्र साम्राज्यवादी राष्ट्र के विरुद्ध खड़ा हुआ। उत्पीड़ित जातियां वर्चस्व प्राप्त जातियों के विरुद्ध जाति के नाम पर इकट्ठा हुइंर् और सार्थक प्रतिरोध प्रस्तुत किया। लेकिन ये सब रणनीति है, आदर्श नहीं। हमारा आदर्श तो वर्ग-वर्ण विहीन, शोषण विहीन एक विकासोन्मुख समाज ही है। ऐसा समाज जो निरंतर परिवर्तनशील हो। आप चाहे जितने पवित्र जल और कीमती साबुन से नहा लें, अगले ही दिन आपको फिर स्नान की जरूरत होगी। इसी तरह चाहे जितनी महान पद्धति से आप समाज को संवार दें, उसे बार-बार नयी पद्धति से संवारने की जरूरत पड़ेगी। यही प्रकृति का नियम है और यही वैज्ञानिक चिन्तन है। सब कुछ अनित्य है-लेकिन अनित्यता की भी निरंतरता है-इस निरंतरता के अपने लय हैं-इसे ही जीवन और प्रकृति कहते हैं।कुर्रतुल ऐन हैदर (१९२८-२००७)विख्यात उर्दू कथा-लेखिका कुर्रतुल ऐन हैदर अब हमारे बीच नहीं हैं। अलीगढ़ में जन्मी ऐनी आपा (उन्हें आदर और प्यार से लोग इसी नाम से पुकारते थे) ने कुल उन्नीस साल की उम्र में अंग्रेजी में एम.ए. किया था। इसी उम्र में पहला उपन्यास 'मेरे सनमखाने` भी लिखा। देश के बंटवारे के बाद वे पाकिस्तान चली गयी और फिर १९६१ में भारत लौटीं। वो अपनी ही तरह की लेखक थीं। भारतीय संस्कृति को उन्होंने जिस विराटता से समझा था वह हमें आज भी हैरान करता है। अपने मशहूर उपन्यास 'आग का दरिया` में उनके इस चिन्तन और समझ को हम देख सकते हैं। गौतम नीलांबर और कमाल रजा जैसे उनके पात्रों के सुख-दु:ख एक आधुनिक भारतीय के सुख-दु:ख हैं। भारतीय पाठक ऐनी आपा को कभी भूल नहीं पायेंगे। 'जन विकल्प` की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।

माओवाद, हिंसा की राजनीति और सामाजिक परिवर्तन के सवाल

बंगाल के नक्सलबाड़ी जिले में वसंत के वज्रनाद के चालीस साल होने जा रहे हैं। तब से इस धारा ने अनेक मोड़ लिये हैं और आज भी एक नये रूप में यह समग्र राजनीति को प्रभावित कर रहा है। बगल के देश नेपाल में माओवादियों का क्रूर दमन किया गया परंतु आखिर में वहां की राणाशाही ही पराजित हुई। अभी भी बिहार सहित देश के कई हिस्सों में नक्सलवादी राजनीति के आधार क्षेत्र बने हुए हैं। सरकार इसे विधि-व्यवस्था की बड़ी समस्या मानती है और इसे उग्रवाद बतला कर बलपूर्वक कुचलना चाहती है।
नक्सलवाद मार्क्सवाद की वह पाठशाला है जहां मार्क्स और लेनिन के अलावे माओ के विचारों का प्रभाव है। इससे जुड़े राजनैतिक कार्यकर्त्ता तो माओवाद को ही सब कुछ मानते हैं। विनोद मिश्र के नेतृत्व वाले लिबरेशन पर माओवाद का प्रभाव न के बराबर था, लेकिन यह गुट अब लगभग पूरी तरह प्रभावहीन हो गया है। माओवादी ताकतें ही ज्यादा प्रभावशाली हैं। माओ का प्रसिद्ध नारा था राजसत्ता बंदूक की नली से निकलती है।
माओ च तुंग (२६,दिसंबर १८९३-९,सितंबर १९७६) के करिश्माई व्यक्तित्व से मैं आज भी प्रभावित हूं। जिन लोगों ने एडगर स्नो की किताब 'रेड स्टार ओवर चाइना` पढ़ी है, वे उसके व्यक्तित्व के प्रति उदासीन नहीं रह सकते। चुडण् वनश्येन द्वारा लिखित माओ के जीवन चरित से मैं जब गुजर रहा था तब एक जगह आकर ठहर गया। चुड. वनश्येन ने समापन के पहले लिखा है-'माओ चतुड. ने अपनी जीवनसंध्या में अनेक गलतियां कीं, लेकिन चीनी क्रांति के लिए उन्होंने जो अमिट महान योगदान किए, उनके लिए चीनी जनता माओ चतुंड. का अब भी हृदय से सम्मान करती है और उनको दिल से याद करती है।` वनश्येन का यह जीवन चरित किसी अमेरिकी प्रकाशन गृह ने नहीं, चीन के सरकारी प्रकाशन गृह ने प्रकाशित किया है। इसलिए इसे पढ़कर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ कि क्यों माओ को आज अपने ही देश में भुला दिया गया है। उनकी स्थिति चीन में लगभग वैसी ही है जैसी अपने देश में गांधी की। वे आदरणीय हैं, अनुकरणीय नहीं। यही कारण है कि चीन माओ के चित्र और सितारेदार लाल झंडे के नेतृत्व में अमेरिकी पूंजीवाद को टक्कर दे रहा है। चीन ने 'समाजवादी` छतरी के नीचे अपना ही पूंजीवाद विकसित किया है। लेकिन माओ और गांधी की इज्जत बनी रहेगी, रहनी चाहिए। माओ की मुश्किलें गांधी से कहीं ज्यादा इसलिए थीं कि उन्होंने आरंभ से ही मार्क्सवादी विज्ञान का सहारा लिया। गांधी की तरह रामनामी ओढ़ कर उनका काम आसान हो सकता था। माओ का राष्ट्रीय आंदोलन साम्राज्यवाद के उतना खिलाफ नहीं था, जितना गांधी का आंदोलन। इसलिए माओ ने गरीब-गुरबों, किसानों और मजदूरों को इकट्ठा किया। गांधी की तरह वह बुर्जुआ तबके के उदार नेता नहीं, बल्कि पिछड़े किसानों के क्रांतिकारी नेता थे। गांधी की तरह वह पंचमेल की राजनीति नहीं कर रहे थे, जहां परस्पर विरोधी विचार शक्तियाने और व्यक्तियों का जमावड़ा हो। शायद यही कारण था कि गांधी की अपेक्षा उनके अंतरविरोध कम थे।
माओ ने साठ के दशक में सांस्कृतिक क्रांति का नेतृत्व किया था। संस्कृति को शायद वह अविच्छिन्न प्रवाह नहीं समझते थे। चीन में बौद्ध मत प्रभावशाली है और लगभग अस्सी फीसदी चीनियों का संस्कार बौद्ध है। बुद्ध मत का मूल प्रतीत्यसमुत्पाद है जो जीवन और जगत के अविच्छिन्न प्रवाह को मानता है,यह परिवर्तनवाद है। माओ ने संस्कृति में क्रांति करनी चाही-आमूल परिवर्तन। पुराने का संपूर्ण निषेध और बिल्कुल नये की स्थापना। माओ इसमें विफल हुए, बदनाम भी। तब से वे लगातार अप्रासंगिक होते गये, अपने ही समाज और देश में।
लेकिन उनकी जो छवि बीसवीं सदी के तीस, चालीस और पचास के दशक में थी, वह हमारे देश के कुछ समर्पित और ईमानदार युवा मित्रों को प्रभावित कर रहा है। और इसका कारण शायद यह है कि हमारे देश के देहाती इलाकों में आज भी स्थिति वैसी ही है जैसी बीसवीं सदी के मध्य में चीन के देहाती इलाकों की थी।
हममें से हर कोई यह स्वीकारेगा कि देश की मुख्यधारा में गांव के लोग नहीं आये हैं। गांव और शहर की दूरी बढ़ रही है। भूमि सुधारों और हरित क्रांति के अभाव ने गांवों को गलीज बना दिया है। कृषि पर इतना जन भार उठाने की क्षमता नहीं है। चालीस प्रतिशत अतिरिक्त आबादी का बोझ यह सेक्टर उठाये हुए है। सामंतवाद-ब्राह्मणवाद का खाज अलग से है।
ऐसे में यह समझाना मुश्किल है कि हिंसा समस्या का समाधान नहीं है। संसदीय राजनीति में जो लक्षण उभरे हैं वे इतने गैर जिम्मेदार हैं कि इससे गांवों में रह रहे निष्ठावान नौजवानों को बस कोफ्त होती है। शासक दल एक तरफ सवर्ण गंुडों व चापलूसों को राजनीतिक ओहदों का तगमा पहना कर लाल बत्ती वाली गाड़ियों पर घुमायेगा और दूसरी तरफ इज्जत व रोटी की लड़ाई लड़ने वाले नौजवानों को यातनायें देगा, तो आक्रोश फूटेगा ही।
पिछले दिनों मैं गया के पास एक गांव में था तो ग्रामीणों ने मिलकर बतलाया कि जब पुलिस को हम गरीबों को सताना होता है तब हम पर माओवादी होने का आरोप लगाती है। जिन पुस्तकों, परचों और असलहों को हमलोगों ने कभी नहीं देखा, उन्हें हमारे घर से बरामद बता कर हमारे घर के नौजवानों को सीखचों के भीतर करती है। हमारी बहू-बेटियों के साथ अभद्र व्यवहार और कभी-कभी बलात्कार तक करती है। हम जब इसके खिलाफ आवाज उठाते हैं तब नक्सलवादी-माओवादी बतला कर हम पर गोली बरसाती है। सरकारी और सामंती हिंसा का मुकाबला हम कैसे करें, यह उनका आखिरी सवाल होता है। थोड़ी आत्मीयता दिखलाने पर वे और खुलते हैं। निर्गुण की जगह सगुण भाषा में बतियाने लगते हैं। उनका कहना होता है कि वे पिछड़ी व दलित जातियों से आते हैं, जबकि पुलिस और उसके अधिकारी ज्यादातर ऊंची जातियों से ताल्लुक रखते हैं।
अन्य राज्यों की पुलिस को मैं उतना नहीं जानता, लेकिन बिहार पुलिस पर सवर्ण वर्चस्व बहुत साफ दिखता है। विधि-व्यवस्था को ठीक करने के नाम पर हर बार कुछ पिछडे-दलित नौजवानों की बलि दी जाती है। अपराधी कोई खास जाति समूह में ही नहीं होते, लगभग हर में होते हैं, लेकिन बिहार के जेलों का सर्वेक्षण करके कोई देख ले, वहां पिछड़ी दलित जातियों के कैदी नब्बे फीसदी मिलेंगे। इसका कारण यह नहीं है कि वे अपराध ही इस मात्रा में करते हैं। दरअसल वे जटिल और खर्चीली न्यायिक व्यवस्था के चक्रव्यूह से बाहर नहीं आते। ऊंची जातियों के लोग जिन मामलों में आसानी से अग्रिम जमानत पा जाते हैं, उन्हीं मामलों में पिछड़ी जातियों के लोग बरसों की 'सजा` भुगतते हैं।
पिछले महीने बिहार पुलिस की बांछें अचानक खिल गयीं। उसने माओवादी नेता अजय को गिरफ्तार कर लिया। अजय पर १३ नवंबर २००५ के जेल ब्रेक का भी आरोप है। इस प्रकरण में पुलिस का सवर्णवादी रूख इतना साफ आया, लेकिन मीडिया ने भी इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। पुलिस ने अजय का नाम बतलाया अजय कानू। मीडिया ने भी इसे ही प्रकाशित किया। 'कानू` बिहारी समाज की एक अति पिछड़ी जाति है जिससे अजय आते होंगे। निश्चित रूप से उनका यह सरनेम नहीं होगा। उनके नाम के साथ जुड़ा होगा कुमार या प्रसाद। लेकिन पुलिस को दिखाना होता है उसकी जाति-कि देखो ये नीच-पतित लोग क्या-क्या करते रहते हैं। बिहार पुलिस तथाकथित निम्नजाति के अपराधियों के नाम के साथ उनका जातिनाम जोड़ना कभी नहीं भूलती, लेकिन ऐसा ही ऊंची जाति के अपराधियों के साथ नहीं करती। मीडिया भी उसका अनुसरण करता है।
अजय (कानू) मामले में मैंने एक बड़े अधिकारी से जब पूछा कि उस पर मामला क्या है कि उसे इतनी कठोर यातना दी जा रही है तब उसने बतलाया कि अन्य अपराधों के साथ उस पर जेल ब्रेक का अपराध है। मेरे यह कहने पर कि वही अपराध न जिसे जयप्रकाश नारायण ने ८ नवंबर १९४२ को किया था, वह अधिकारी बगलें झांकने लगा। यह हमारे व्यक्तित्व का एक अजीब विरोधाभास है जिस पर हम गौर नहीं करना चाहते। हम नारों, आप्तवाक्यों और सुभाषितों में जिस तरह खुद को व्यक्त करते हैं, उस तरह बनना नहीं चाहते। वर्तमान बिहार के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री दोनों जयप्रकाश आंदोलन की राजनीतिक कोख से निकले हैं। इस आंदोलन का एक प्रभावशाली नारा था- 'जेल का फाटक टूटेगा, भाई हमारा छूटेगा`। जैसा कि मैंने ऊपर बतलाया कि जे.पी के जीवन का भी सबसे बहादुर कारनामा जेल से भागना ही था। जे.पी या भगत सिंह की राजनीति थी, तो अजय की भी राजनीति है। एक सभ्य समाज के नागरिक के नाते हम इस विषय पर विवेक और संवेदना के साथ विचार क्यों नहीं करते?
तथाकथित माओवादी उग्रवाद का इलाज पुलिसिया दमन से होता है तो हम इसका विरोध करना चाहेंगे। माओवादियों की हिंसा का हम समर्थन नहीं करते, लेकिन वे दलित-पिछड़े तबकों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, इसे हम जानते हैं। भगत सिंह का लाला लाजपत राय की राजनीति से मतलब नहीं था। लाजपत राय हिन्दू सभायी थे, लेकिन उन्होंने लाठियां देश की खातिर खायी थीं, इसलिए उनकी बर्बर पिटायी से भगत सिंह इतने मर्माहत हुए कि उन्होंने ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सैण्डर्स की हत्या का फैसला किया। अजय सहित तमाम माओवादी मित्रों को हम इस आशा के साथ सलाम करते हैं कि वे सामाजिक परिवर्तन के लिए हिंसा की राजनीति का परित्याग करेंगे।

-प्रेमकुमार मणि

बिहार में विकास की राजनीति

आज पूरी दुनिया में विकास की आंधी चल रही है। कभी राष्ट्रवाद और समाजवाद को लेकर भी ऐसी ही आंधी चली थी। विकास की इस आंधी ने राष्ट्रवाद को तो पूरी तरह और समाजवाद को बहुत हद तक अप्रासंगिक बना दिया है। जहां तक भारत की बात है जिस कांग्रेस ने कभी समाजवाद शब्द को भारतीय संविधान में भारतीय गणराज्य के साथ नत्थी कराने में अग्रणी भूमिका निभायी थी उसी ने उसे अप्रासंगिक बनाने में भी अग्रणी भूमिका निभायी है। अब बिहार में समाजवादी तबियत के नीतीश कुमार विकास की राजनीति की प्रस्तावना कर रहे हैं जिसकी एक झांकी पिछले १९-२१ जनवरी को पटना में हुए एक ग्लोबल कांफ्रेंस में प्रस्तुत हुई; जिसे एक एनजीओ ने बिहार सरकार के सहयोग से आयोजित किया था और जिसका उद्घाटन भारत के राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने किया। राष्ट्रपति डॉ. कलाम विकास की राजनीति के पुराने प्रस्तावक रहे हैं। इसलिए उनका भाषण रश्मी तौर पर दिया गया भाषण नहीं, बल्कि मनोयोग से तैयार किया गया एक दिलचस्प भाषण था। उद्घाटन सत्र, जो पटना कें एक बड़े सभागार में ताम-झाम के साथ आयोजित था, में मुझे भी शामिल होने का अवसर मिला। बिहार में कांग्रेस का जो पहला अधिवेशन हुआ था (१९१२, बांकीपुर कांग्रेस) उस में भाग लेकर जवाहरलाल नेहरू को जो अनुभूति हुई थी, कुछ-कुछ वैसी ही अनुभूति इस समारोह के बाद मेरी थी। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- 'I visited as a delegate, the Bankipore congress during christmas 1912. It was very much an English knowing upper class affair, Where morning coats and well-pressed trousers were greatly in evidence. Essentially it was a social gathering with no political excitment or tension.(Page-30)' इसमें यदि संशोधन की जरूरत है तो बस 'अपर क्लास` की तरह 'अपर कास्ट` भर की। कुलीन 'बुद्धिजीवियों` की इस खूबसूरत कांफ्रेंस में प्रतिभागियों की रूचि विकास में कम, अपनी धज प्रदर्शित करने में अधिक थी। इस समारोह को ग्लोबल नहीं गोलमाल समारोह कहने वाले लालू प्रसाद ने भी ठीक इसी समय को ब्राह्मणवादी ठीहे पर आत्मसमर्पण के लिए चुना था। इस दौरान वे अपने गांव में शंकराचार्य को बुलाकर उनके चरणों में लोट रहे थे। फुलवरिया में खुला ब्राह्मणवाद था तो पटना में प्रच्छन्न ब्राह्मणवाद। अब बिहार को इनके बीच से आगे या पीछे जाना है।
सवाल उठता है बिहार में विकास का मॉडल क्या हो? मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद सोचते हैं तो उनके सोच में सामाजिक न्याय का एक पुट होता है। पंचायत चुनावों में अपनी सोच को साकार कर उन्होंने एक क्रांतिकारी कदम उठाया था। महिलाओं और बहुत पिछड़े तबकों को पंचायत चुनावों में आरक्षण सुनिश्चित कर ग्रामीण इलाकों में उन्होंने एक नया नेतृ वर्ग खड़ा किया है। इससे जो हलचल पैदा हुई है वह सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन का कारक बनेगा। लेकिन नीतीश कुमार यदि यह सोचते हैं कि बाहरी निरंकुश निवेश से बिहार में विकास होगा तो वे गलती पर हैं। वास्तविक विकास के लिए ग्रामीण स्तर पर कृषि क्षेत्र में पूंजीवादी रूझानों को बल देना होगा। आजादी के बाद से ही ब्राह्मणवादी-समाजवादी चेतना ने निचले स्तर पर पूंजीवादी रूझानों को हतोत्साहित किया और इसी का नतीजा है गांव और शहर की दूरी बढ़ती गयी। जिन लोगों ने यूरोप में औद्योगिक क्रांति के इतिहास का अध्ययन किया है वे यह भी जानते हैं कि किन लोगों ने वहां इसे विकसित किया था। पूंजीवाद एक अवस्था में प्रगतिशील कदम होता है क्योंकि यह सामंतवादी रूझानों को खत्म करता है। (फ्रांसीसी लेखक बॉल्जाक की रचनाओं को देखें। मार्क्स ने इसे रेखांकित किया है।) हमारे मुल्क में आयातित समाजवाद ने अपनी लड़ाई पूंजीवाद से शुरू की। (दरअसल समाजवाद पूंजीवाद से ही संघर्ष करता है।) इसका प्रतिफल हुआ कि एक तरफ तो समाज के सामंतवादी रूझान साबूत रह गये दूसरी तरफ ऊंची जातियों के प्रभुत्व वाले लोकतंत्र ने जिस समाजवाद को लाया वह ब्राह्मण-समाजवाद बन कर रह गया। उदाहरण के लिए भारतीय कॉरपोरेट सेक्टर में ऊंची जातियों, खासकर ब्राह्मणों के प्रभुत्व को देखंे। यह सरकारी प्रयासों से हुआ है। (विस्तृत अध्ययन के लिए गेल ऑम्वेट का लेख 'रिजर्वेशन इन प्राइवेट सेक्टर` द हिन्दू ३१ मई-१ जून २००१) अब विकास के इस दौर में देखना होगा कि निचले तबकों को लेकर हम विकास का कैसा खाका बनायंे जिससे वास्तविक विकास हो सके। शायद इसे ही नीतीश कुमार न्याय के साथ विकास कहते हैं। इसके लिए पूंजी से अधिक ज्ञान और समर्पण की जरूरत है। फ्रांसीसी लेखक-चिन्तक गाइ सोमां इसे बेयरफुट कैप्टिलिज्म (नंगे पांव पूंजीवाद) कहते हैं। यह बेयरफुट कैप्टिलिज्म विकास का आधार बनेगा तभी सामाजिक न्याय भी संभव होगा। (मार्च अंक में इस विषय पर गाई सोमां का लेख देखेंगे) १९-२१ जनवरी को संपन्न ग्लोबल मीट पिछड़े बिहार को विकास की ओर नहीं, एक नयी राजनीतिक गुलामी की ओर ले जायेगा जो अंतत: एक जटिल सामाजिक गुलामी को भी जन्म देगा और जिससे जूझने में समानता और आजादी के सिपाहियों को दशकों का समय लग जायेगा।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य और आधारभूत ढांचे की मजबूती के लिए रात-दिन परिश्रम कर रहे हैं। हर सभा-समारोह में लाठी फेंकने और कलम-कागज पकड़ने की बात कहते हैं। बिहारियों की लगनशीलता और काबलियत पर वे इतराते भी हैं। इस मानव संसाधन को उन्होंने अपनी पूंजी माना है। जाति और संप्रदाय से बाहर आकर वे बिहारीपन की, इसके स्वाभिमान की बात करते हैं। दरअसल यही वह महत्वपूर्ण कार्य है जिससे निचले स्तर से पूंजीवादी रूझान विकसित होंगे। इसी आधार पर सम्यक विकास की रूप रेखा बन सकेगी। यही वास्तविक सामाजिक न्याय भी है। जैसा कि राष्ट्रपति कलाम ने भी २०१५ तक पूर्ण साक्षरता और पूर्ण गरीबी उन्मूूलन की बात की है। इसे हर हाल में हासिल करना होगा। लेकिन प्रवासी निवेशकों की रूचि साक्षरता और गरीबी उन्मूलन में नहीं है। उनकी रूचि औन-पौन दाम में जमीन हासिल करने और येन-केन अपनी झोली भरने में है। किसी भी विकास पुरुष के लिए ऐसे लोगों से सावधान रहना ही श्रेयस्कर होगा।


- प्रेमकुमार मणि

जनतंत्र की मुश्किलें : राजनीतिक दलों का आंतरिक जनतंत्र

राजनीतिक पार्टियां देश में जनतंत्र के खतरों को चाहे जितना समझती हों, अपनी ही पार्टी के आंतरिक जनतंत्र के प्रति पूरी तरह उदासीन हैं। वाम दलों को छोड़कर (और इसमें थोड़े से इफ-बट के साथ भाजपा को भी रख सकते हैं ) बाकी तमाम राजनीतिक दल एक चौकड़ी अथवा लिमिटेड कंपनी बन कर रह गये हैं। कांग्रेस में यदि सोनिया गांधी की तानाशाही है, तो समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह और बसपा में मायावती की। ये तो उदाहरण भर हैं। आप उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम की किसी भी पार्टी का नाम ले सकते हैं और बड़ी आसानी से उसके तानाशाह को पहचान सकते हैं। (वामदलों और भाजपा में थोड़े भिन्न किस्म की तानाशाही चलती है।)
यह बीमारी कैसे और कब शुरू हुई इसका अध्ययन होना अभी बाकी है, लेकिन मोटे तौर पर इसकी शुरुआत कांग्रेस में इंदिरा गांधी के जमाने से हुई लगती है। राजनीति में परिवारवाद की शुरुआत भी कांग्रेस से ही शुरू हुई। आज यह बीमारी भी सभी दलों में व्याप्त हो गयी है।
क्या राजनीतिक दलों के आंतरिक जनतंत्र पर गहराते इस संकट का देश के जनतंत्र से कोई लेना-देना नहीं है? मैं समझता हूं है। जो राजनीतिक दल अपने आंतरिक जनतंत्र को ठीक नहीं रख सकता, वह देश के जनतंत्र को भी ठीक नहीं रख सकता। कमजोर जनतंत्र पर टिके ये राजनीतिक दल देश के जनतंत्र को कमजोर करेंगे ही। यह एक ऐसा खतरा है जिस पर समय रहते विमर्श आवश्यक है।
पचास के दशक में ही कांग्रेस के सदस्यता अभियान में आपाधापी शुरू हो गयी थी। थैलीशाह पार्टी कोष में एकमुश्त भारी रकम जमा करा देते थे। छोटे कार्यकर्त्ता वोटर लिस्ट से फर्जी सदस्यता का फार्म भर कर पार्टी मुख्यालय में जमा कराते थे। पार्टी चुनावों में ये कार्यकर्त्ता थैलीशाहों का समर्थन करते थे। इस तरह थैलीशाह तबके ने धीरे-धीरे राजनेताओं को अपने घेरे में लिया। पार्टी पर धीरे-धीरे साधनसंपन्न तबकों का वर्चस्व बढ़ने लगा। राजनीतिक कार्यकर्त्ता कमजोर होने लगे। कमजोर होते-होते इनकी स्थिति आज दासों जैसी हो गयी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज राजनीतिक कार्यकर्त्ता पूरी राजनीतिक प्रक्रिया का सबसे उदासीन और असहाय पात्र बन कर रह गया है।
जब राजनीतिक दलों में जनतंत्र मजबूत था तब पार्टी की सक्रियता बनी रहती थी। राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं की पूछ होती थी। वे पार्टी के आधार होते थे। वे पढ़ते थे, बहस करते थे और जनसमस्याओं को लेकर संघर्ष करते थे। दल की रीति-नीति बनाने में उनका योगदान होता था। बड़े नेताओं का अपना प्रभाव अवश्य था, लेकिन जब वे कोई बात रखते थे या निर्णय लेते थे तब उनकी चिन्ता यह अवश्य होती थी कि सामान्य कार्यकर्त्ता इसे किस रूप में लेगा। इसे स्वीकारेगा या नकारेगा।
आज राजनीति में इस लोकलाज की कोई जगह नहीं है। कहीं कोई विचार-बहस नहीं है, संघर्ष नहीं है। दलीय तानाशाह की जय करने में ही पूरी राजनीतिक सक्रियता सिमट गयी है। राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं की जगह चापलूसों की चल बनी है और लगभग सभी पार्टियों के नेता इन चापलूसों से घिरे हैं।
आंतरिक जनतंत्र को कमजोर करने में राजीव गांधी के जमाने में पारित दल बदल कानूनों की भी महती भूमिका रही है। एनडीए शासन काल में इसे और जटिल बनाकर दल के नेता की स्थिति और मजबूत कर दी गयी। सीमित और एकल विरोध का अब कोई मतलब नहीं था। सांसद विधायक ही जब इतने विवश हो गये तब सामान्य कार्यकर्त्ता की क्या बिसात थी। उनकी स्थिति और बदतर हो गयी।
राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं का हाशिये पर चला जाना एक गंभीर संकट है। बहुत पहले ख्यात् कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु ने इसकी ओर ईशारा किया था। उनकी कहानी 'आत्मसाक्षी` का गनपत ऐसा ही एक राजनीतिक कार्यकर्त्ता है, जो लगभग पैंतीस वर्षों की राजनीतिक सक्रियता के बाद अपनी ही पार्टी के नेताओं द्वारा अपमानित होकर महसूस करता है 'हम गलत रास्ते पर थे।` जर्मन विद्वान लोठार लुट्से ने इस कहानी का जर्मन में अनुवाद किया है और उन्हें यह कहानी इतनी पसंद थी कि जब वे रेणु से मिले और उनका इन्टरव्यू किया तब देर तक केवल इस कहानी पर बात करते रहे। यह १९७२ का समय था। १९७५ के बदनाम आपात काल से केवल तीन वर्ष पूर्व का समय। (हालांकि कहानी जनवरी १९६५ में लिखी गयी है।) रेणु की इस कहानी द्वारा लोठार लुट्से ने आने वाले संकट को पहचाना था। लुट्से का सवाल था- रेणु जी, मैंने आपको बताया कि आपकी इस (आत्मसाक्षी) कहानी का मैंने जर्मन में अनुवाद किया है, जो चार और कहानियों के साथ एक संग्रह में छपेगा। संग्रह का नाम मैंने रखा है 'आजादी की मुश्किलें`। आपकी कहानी का एक अंश मैंने सवाल का आधार इसलिए बनाया कि मुझे लगता है, आपका चरित नायक गनपत मानो एकाएक आजादी की मुश्किलें-बल्कि कह लीजिये आजादी की मुसीबतें पहचान लेता है -बिजली की कौंध की तरह।`
लुट्से ने आगे पूछा- 'क्या आप मेरी बात से सहमत होंगे?` और रेणु का जवाब था- 'हां, मैं आपसे सहमत हूं।`रेणु और लुट्से आजादी (मैं कहूंगा जनतंत्र) की मुश्किलों से परिचित थे। लेकिन जिन मुश्किलों को उन दोनों ने १९६५ और १९७२ में देखा था, वे आज कहीं अधिक, कई गुना विकराल और भयावह हैं। कुछ अपवादों के साथ लगभग सभी राजनीतिक दल एक गिरोह के रूप में काम कर रहे हैं, जहां अनुशासन का अर्थ है दलीय तानाशाह की कारगुजारियों पर चुप्पी साधे रहना। सबसे अनुशासित कार्यकर्त्ता वह है जो सबसे अधिक चुप रहता है और सबसे सफल राजनेता वह जो राजनीति के अलावे बाकी सब काम करता है।
इस पूरे मामले में हस्तक्षेप तो जनता ही कर सकती है, लेकिन ऐसा कहना इसे अमूर्त रूप देना ही कहा जायेगा। वस्तुत: यह कार्य सभी राजनीतिक दलों के कार्यकर्त्ताओं को करना चाहिए। लेकिन यह भी कहा जायेगा कि क्या अपनी ही पार्टी में हस्तक्षेप करने की स्थिति में राजनीतिक कार्यकर्त्ता रह गये हैं?


-प्रेमकुमार मणि

सामाजिक न्याय का महायान

मैं समझता हूं, महायान से भारत के पढ़-लिखे लोग सुपरिचित हैं। बौद्धदर्शन के विकासक्रम में वहां हीनयान और महायान नाम से दो संप्रदाय विकसित हुए। 'यान` का मतलब गाड़ी या छकड़ा होता है-जैसे वायुयान। हीनयान मतलब छोटी गाड़ी और महायान मतलब बड़ी गाड़ी।
बौद्धों के बीच से महायान का विकास अंतत: उनके विनाश का कारण बना। यह समाज के ऊंचे तबके का दर्शन-विलास था। वैचारिक रूप से ये महायानी वर्णाश्रम धर्म के विरोधी थे, किन्तु ये स्वयम् समाज के अनुत्पादक तबके से आते थे। उनकी वैचारिकता धीरे-धीरे अनुत्पादक तबके के अनुकूल होती गयी, बुद्ध के प्रतीत्य समुत्पाद से अनत्यिवाद और अनात्मवाद के जो स्वर फूटते थे, उसे महायानी शून्यवाद तक ले आये। वह शून्यवाद तर्क के रूप में तो खूब कसा हुआ था, लेकिन बौद्ध दर्शन की परिवर्तनकारी चेतना को कुंद करने वाला भी था। इसी शून्यवाद को शंकर ने अद्वैत वेदान्त अथवा मायावाद में परिवर्तित कर मूल बौद्ध दर्शन पर हमला बोल दिया और वेदांत के रूप में फिर से ब्राह्मण धर्म का वर्चस्व स्थापित कर दिया। शंकर को प्रच्छन्न बौद्ध इसीलिए कहा जाता है। बौद्ध दर्शन पर हमला और उस पर वर्चस्य कोई शाब्दिक या दार्शनिक संग्राम भर नहीं था। इसका नतीजा बौद्धों के कत्लेआम के रूप में सामने आया था।
महायान के उलट बौद्धों के बीच जो हीनयान था उसका संबंध समाज के उत्पादक तबके से ज्यादा था, शंकर ने नेतृत्व में बौद्ध विरोधी जो मुहिम चली उसके कारण इनका नेतृ वर्ग या तो देश छोड़कर बाहर चला गया या मारा गया। महायानियों ने खुद को वर्णाश्रम धर्म में शामिल कर लिया। बचे हीनयानी औघर पंथ में तब्दील हो गये। इनके अनुयायियों ने वर्णाश्रम धर्म में शामिल होने से इनकार कर दिया और प्रतिक्रिया स्वरूप इस्लाम की शरण में चले गये।
लब्बोलुबाब यह कि महायान के विस्तार ने अंतत: बौद्धों को विनाश के रास्ते पर धकेल दिया और वे विनष्ट हो गये। किसी भी पंथ या आंदोलन का महायान उसे विनष्ट करने के लिए ही विकसित होता है।दु:खद यह है कि इन दिनों सामाजिक न्याय के आंदोलन के बीच से भी एक महायान विकसित होता नजर आ रहा है। कुछ नेता अपना सहजयान पहले ही विकसित कर चुके हैं। इन दोनों अतियों से सामाजिक न्याय के मुख्य संघर्ष को क्षति हुई है। यही कारण है कि सामाजिक न्याय को लेकर सामाजिक या राजनीतिक क्षेत्र में आज कोई गंभीर विमर्श नहीं चल रहा है।
हिन्दी क्षेत्र में सामाजिक न्याय का संघर्ष पहले से ही कमजोर था। इसके कारणों पर विमर्श होना अभी बाकी है। (बुद्ध और कबीर की कर्मभूमि पर आधुनिक जमाने में किसी फुले या आंबेडकर जैसे व्यक्तित्व का न उभरना भी हैरानी की बात है।) राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान छिटपुट संघर्ष की ही सूचनायें मिलती हैं-जैसे बिहार में त्रिवेणी संघ का मामूली-सा संघर्ष। अंगरेजी राज के बाद के दिनों में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में भी एक संघर्ष की शुरुआत हुई, जिसमें बड़े पैमाने पर लोग जुड़े। लेकिन स्वयम् लोहिया का व्यक्तित्व इतना विरोधाभासी था कि आज यह समझना कठिन है कि वह चाहते क्या थे। अपनी राजनीति को पुख्ता करने के लिए उन्होंने 'पिछड़ा पावे सौ में साठ` का नारा देकर पिछड़े तबकों से अपनी पार्टी के लिए पर्याप्त समर्थन तो जुटाया, लेकिन ब्राह्मणवादी चिंतन परंपरा पर कोई व्यवस्थित हमला नहीं किया। इसके उलट हिन्दू पौराणिकता के मुख्य पात्रों राम, कृष्ण, शिव आदि की 'आधुनिक` व्याख्यायें कर उस ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व के लिए पिछड़े वर्गों में एक अनुकूलता बनायी जिसके आधार पर वे जनसंघ और कालांतर में भाजपा के साथ जुगलबंदी कर सकें।
लोहिया ने जो समझ विकसित की थी उसके बूते सरकार तो बनायी जा सकती थी कोई आंदोलन विकसित नहीं किया जा सकता था। उनकी मृत्यु के बाद रामस्वरूप वर्मा और जगदेव प्रसाद जैसे नेताओं ने लोहियावादी घेरे को तोड़ा और फुले-आंबेडकरवाद की ओर हाथ बढ़ाने की कोशिश की। यदि आखिरी दिनों में दिये गये कुछ भाषणों को आधार बनाया जाए तो कहा जा सकता है कि कर्पूरी ठाकुर का मोह भी पूरी तरह टूट चुका था। लेकिन इनके अनुयायियों का मोह नहीं टूटा। गांधीवाद लोहियावाद की जकड़न से वे मुक्त नहीं हो सके। एक सुसंगत विचारधारा के अभाव में उन्होंने आरक्षण को ही सामाजिक न्याय का केन्द्रक मान लिया। बिहार और यू.पी. में इनकी सरकारें बनीं, लेकिन ये कुछ खास कर नहीं सके।
आज सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय से ओ.बी.सी. के लोग बौखलाये हैं। उनके विरोधी होली खेल रहे हैं, मिठाइयां बांट रहे हैं। ओ.बी.सी. के लोहियावादी नेताओं का स्वर भाजपा-कांग्रेस के सवर्ण नेताओं के स्वर से एकरस हो गया है। सभी एक स्वर में सर्वदलीय बैठक की मांग कर रहे हैं। यह बैठक होगी भी और आरक्षण भी बहाल हो जायेगा (बुद्ध को भी दसावतारों में अंतत: शामिल कर ही लिया गया था।) लेकिन चेतना के स्तर पर ओ.बी.सी का स्वत्व हर लिया जायेगा।
हमारी चिंता यहां से शुरू होती है।


-प्रेमकुमार मणि

आजादी का संघर्ष आज भी चल रहा है

मेरे मन में बार-बार यह सवाल आता है कि १५ अगस्त १९४७ को हम किस रूप में लें। क्या वह भारतीय राष्ट्रवाद के चरम उत्कर्ष का दिन था-क्योंकि एक गुलाम राष्ट्र उस रोज विदेशी वर्चस्व से मुक्त हुआ था, या कि उसके चरम पतन का दिन-क्योंकि राष्ट्र उस रोज विखंडित हो गया था। आजादी की लड़ाई में चाहे जितनी अहिंसा बरती गयी, आजादी का आगमन हिंसा की भयावहता के साथ हुआ था। अमानवीयता की हदें पार करते भीषण सांप्रदायिक दंगे, लूट, बलात्कार, विश्वासघात और क्रूरता को भूल जाना इतिहास के साथ धोखा-धड़ी होगी। ऐसे परिदृश्य के बीच स्वतंत्रता की व्याख्या हम किस रूप में करें, तय करना मुश्किल होता है।लेकिन हमारे बूर्जुआ इतिहासकारों, शिक्षकों और नेताओं ने बार-बार १५ अगस्त की महानता के इतने पाठ पढ़ाये हैं और आज इन सबसे हमारा मन इतना प्रदूषित है कि इतिहास के दूसरे पहलू को हम बिल्कुल भूल चुके हैं। ताज्जुब होता है कि सूक्ष्म इतिहास बोध के राजनेता नेहरू ने खून से लथ-पथ आधी रात को जब 'नियति से भेंट` वाला प्रसिद्ध भाषण दिया तब भी उन पर इस वातावरण का कोई असर नहीं था। वे तो मानो कविता-पाठ कर रहे थे : 'आधी रात को ॥जब दुनिया सो रही होगी, भारत जाग उठेगा..`
दुनिया सो नहीं रही थी। संसद भवन के बाहर दंगे-फसाद हो रहे थे, अस्मतें लूटी जा रही थीं और लाखों लोग अपना-अपना वतन छोड़ कर अपने-अपने देश की ओर भाग रहे थे।
हालांकि तब भी ऐसे लोग थे जिन्होंने 'यह आजादी झूठी है` का नारा दिया था। उनके हाथ में अखबार नहीं थे और उनके नारों को संजोकर रखने वाले इतिहासकार भी नहीं थे, इसलिए उनके बारे में नयी पीढ़ी को जानकारी बहुत कम है। लेकिन सच्चाई है कि भारत के बड़े हिस्से में आजादी के प्रति एक उदासीनता का भाव था। 'देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है` जैसे नारे पूरे भारत के गांव-कस्बों में लगाये गये थे। राष्ट्रपिता कहे जाने वाले आजादी के सबसे बड़े सेनानी ने स्वयम् को आजादी के उत्सव से अलग रखा था। वह उनके शोक का दिन था।
आज साठ साल बाद पूरे घटनाक्रम पर विचार करना एक अजीब किस्म की अनुभूति देता है। आजादी के संघर्ष के इतिहास की जिस तरह भारत-व्याकुल भाव से व्याख्या की गई है, वह हमें और अधिक उलझाव में डालता है। उसके अंतरविरोधों को सामने रखना सीधे देशद्रोह माना जा सकता है। किसी देश-समाज में इतिहास और 'नायकों` के प्रति ऐसी गलद्श्रुतापूर्र्ण भक्ति देखने को नहीं मिलती। इसलिए यह कहा जा सकता है कि पिछले साठ वर्षों में हमारे समाज में मानसिक गुलामी ज्यादा बढ़ी है।
जब आजादी की लड़ाई चल रही थी तब विभिन्न तबकों ने अपने-अपने ढंग से अपनी भावनाओं का इजहार किया था। गांधी नि:संदेह बड़े नेता थे और उनका प्रभाव भी था लेकिन उनकी कमजोरियां भी थीं। उस समय ही आंबेडकर और जिन्ना ने उनसे असहमति जाहिर की थी। आज का समय होता तो शायद दोनों देशद्रोही करार कर जेलों में ठूंस दिये जाते।
आंबेडकर ने तो आजादी की सैद्धांतिकी पर ही सवाल खड़ा किये थे। आजादी के संघर्ष और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में उन्होंने अंतर किया। तथाकथित स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल लोग स्वतंत्रता या आजादी को सीमित अर्थों में ले रहे थे। आंबेडकर ने उसे विस्तार से लेने का आग्रह किया। भारत का बूर्जुआ तबका, जो जाति के हिसाब से हिन्दू-मुसलामानों का सवर्ण-असराफ तबका भी था, अंग्रेजों से विमुक्तता को ही आजादी मान कर संतुष्ट था-क्योंकि भारत का राज-पाट अब उसके जिम्मे था। एक व्यक्ति, एक वोट के अधिकार वाले जनतंत्र के साथ राजनीतिक आजादी तो सब को मिल गयी थी लेकिन सामाजिक-आर्थिक आजादी देने मेंे वह अडंग़े डाल रहा था। आंबेडकर ने कहा-'राजनीति में समत्व रहेगा और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में विषमता रहेगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे, पर सामाजिक और आर्थिक संरचना में हम एक व्यक्ति एक मूल्य का सिद्धांत स्वीकार नहीं करेंगे। अन्तरविरोधों का यह जीवन हम कब तक जीते रहेंगे? हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समत्व से कब तक इनकार करते रहेंगे? यदि हम अधिक दिनों तक इसे इनकार करते रहे तो हमारा लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। हमें अंतरविरोधों को यथासंभव शीघ्र खत्म कर देना चाहिए। अन्यथा जिस राजनीतिक लोकतंत्र को इस सभा ने इतने परिश्रम से तैयार किया है, उसकी संरचना को विषमता के शिकार लोग उड़ा देंगे।`
भारत के शासक तबके ने स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास पर अंग्रेज विरोधी भाव को इतना घनीभूत कर दिया कि हम सामंतवादी-ब्राह्मणवादी गुलामी को पूरी तरह नजरअंदाज कर गये। इससे समाज के शासक तबके का स्वार्थ सधा और गुलामी का एक बड़ा फलक विकसित हुआ। इसलिए भारत के आधुनिक इतिहास पर नये सिरे से विमर्श की जरूरत है। यहां तक कि अंग्रेजों की भूमिका पर भी हमें नये ढंग से चिन्तन करना चाहिए। पलासी का युद्ध अंग्रेज क्यों जीत सके? पेशवा और मराठों का हारना क्यों जरूरी हुआ? १८५७ के विद्रोहों की सामाजिकता और सैद्धांतिकी क्या थी? कांग्रेस के पूना जलसे पर तिलक के नेतृत्व में ब्राह्मणवादियों का कब्जा कैसे हुआ? कंाग्रेस के रैडिकल और मॉडरेट ईकाइयों में कौन प्रगतिशील और कौन प्रतिगामी था? गांधी आखिर समय तक वर्णाश्रम व्यवस्था के पक्षधर कैसे और क्यों बने रहे? जैसे सवालों पर नयी पीढ़ी को विस्तार से जानने का हक बनता है। आजादी के इतिहास का चालू पाठ इतना इकतरफा और एकरस है कि उसके सहारे हम नयी पीढ़ी की स्वतंत्र मानसिकता का विस्तार देने में अक्षम हैं। फ्रांस में राज्यक्रांति के रूप में स्वतंत्रता का जो संघर्ष हुआ था उसके पार्श्व में रख कर हमें अपने स्वतंत्रता आंदोलन को खंगालना चाहिए। हमारे संघर्ष में रूसों और वाल्तेयर नहीं हैं। हमने तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर की भी केवल इसलिए पूजा की कि उन्हें नॉवेल पुरस्कार मिल गया था। उनके 'गोरा` से हमने कुछ नहीं सीखा।
क्या हमने इस बात पर विचार किया है कि आजादी का संघर्ष आज भी अनेक रूपों में चल रहा है? दलित-पिछड़े-आदिवासी और मिहनतकश-गरीब आज भी आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका संघर्ष बुद्ध, कबीर, फुले, मार्क्स, आंबेडकर, पेरियार, भगत सिंह जैसे विचारकों के मार्गदर्शन में हो रहा है। गांधीवादी जमात के लोग या तो तटस्थ हैं या फिर इनके खिलाफ बंदूक और गीता लेकर खड़े हैं। फिर भी लड़ाई चल रही है।आप इस लड़ाई में किस ओर हैं?

- प्रेमकुमार मणि
आस्था नहीं, वैज्ञानिक चेतना



पिछले कुछ दिनों से मेरे मन में बार-बार यह बात आ रही है कि हम कहां जा रहे हैं। एक तरफ मुल्क में वैज्ञानिक तकनीकी संस्थानों का जाल बिछ रहा है जिसमें लाखों युवा विज्ञान और तकनीक की उम्दा पढ़ाई कर रहे हैं, दूसरी ओर हमारी सामाजिक प्रवृत्तियों में धर्मान्धता, कट्टरता और अवैज्ञानिकता का जोर बढ़ता जा रहा है। जब हमारी पीढ़ी तरूणाई में थी तब इक्कीसवीं सदी का सुनहला स्वप्न देखती थी। हम समझते थे इस स्वप्निल सदी में वर्ग तो शायद कुछ रह जाए, वर्ण और जाति का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। समाज में ज्यादा समानता होगी, न्याय होगा। पंडे और मुल्ले अजायब घरों की चीज हो जायेंगे। इनकी जगह प्रखर बौद्धिक आध्यात्मिक गुरू ले लेंगे। आदि..आदि..
लेकिन जो हुआ सो आपके सामने है। सुनहला स्वप्न, दु:स्वप्न की तरह हमें डरा रहा है। वर्ग, वर्ण, जाति सब की खाई बढ़ी है। असमानता बढ़ी है। पंडे और मुल्ले तो अब राजनीति से लेकर साहित्य तक की पहरेदारी कर रहे हैं। वे बड़ी संख्या में विधान सभाओं और संसद में पहुंच चुके हैं। १९५० के दशक में एक धर्म भीरू राष्ट्रपति ने जब बनारस में पंडों के पैर धोये थे, तब समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने इसके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था। आज मंत्री और मुख्यमंत्री खुले आम ऐसी बेशर्मी कर रहे हैं और कोई इनके खिलाफ एक बयान तक नहीं देता।मुझे बड़ा झटका तब लगा, जब पिछले दिनों सेतुसमुद्रम् मामले में राष्ट्र की संचित मूर्खता बलबला कर सामने आयी। जिस रोज विश्व हिंदू परिषद ने इसके खिलाफ राष्ट्रव्यापी बंद का आयोजन किया था, मैं दिल्ली में था। मुझे आवश्यक कार्यवश एक जगह जाना था, लेकिन नहीं जा सका, क्योंकि जगह-जगह विहिप का बैनर लगाये भाजपायी रंगरूट राह रोके हुए थे। अपने कमरे में टी.वी पर मैं समाचार देख रहा था। राष्ट्र की 'विराट` मूर्खता के 'भव्य` दर्शन से मैं अचंभित था। यह एक नया भारत था, या कहें इक्कीसवीं सदी के भारत की यह नयी अंगड़ाई थी।
फिर तो मूर्खता की प्रतियोगिता शुरू हो गयी। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के अधिकारियों ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर किया कि राम के सम्बंध में हमारे पास कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं हैं। उन अधिकारियों ने वही कहा था जो सच था। लेकिन इसे लेकर मारा-मारी शुरू हो गयी। जिन्ना के बारे में एक टिप्पणी देकर अपने घराने में अपना राजनीतिक स्वत्व खो चुके आडवानी को लगा कि यही मौका है कि पुन: धर्मान्धता की दीक्षा ले ली जाय। वे आगे आये और भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण और केंद्र सरकार पर हमला किया। केंद्र सरकार की दादी अम्मा को लगा कि यही मौका है अपनी विदेशी मूल को देशी चासनी में डुबोने का। उन्होंने कट्टरता और दिमागी दिवालियेपन के सामने खुद को वैसे ही बिछा दिया जैसे उनके दिवंगत पति ने शाहबानों मामले में मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने खुद को बिछा दिया था। समाजवादी घरानों से आये राजनेताओं को लगा कि लोहिया जी भी तो रामायण मेला लगाते थे। जो हो रहा है, सो होने दो। ऐसी चीजों पर ज्यादा मगज लगाना ठीक नहीं। देश के कवियों, लेखकों, संपादकों में से भी मेेरे जानते कोई सामने नहीं आया कि पूरे मामले को तर्क और बुद्धि के चश्मे से देखा जाय। मूर्खता के इस जलजले से सब सहमे हुए थे। राम हमारी आस्था के चीज हैं। उनकी रक्षा तो होनी चाहिए। कुल मिलाकर यही भाव सामने आया।
मैं भी रामायण का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। दुनिया भर में मेरे जानते किसी भी भाषा में वैसी कृति नहीं है, जैसी कि रामायण है। हमारे देश का दुर्भाग्य है कि उसे केवल राम की कथा के रूप में स्वीकार किया गया है। रामायण में जो शाश्वत सत्य है, वह यह कि राजपद व्यक्ति को भ्रष्ट बनाता है। किसी भी महापुरुष को वह राजत्व से बचने की सलाह भी देती है। रामायण के नायक पुरुष राम को लें। वह जब तक राजपद से दूर रहते हैं, बहुत ही प्रगतिशील हैं। आयोनिजा सीता, जो जनक को खेत में लावारिश मिली थीं, उनसे विवाह करते हैं राम। संभवत: संस्कारों का यह शिव धनुष था, जिसे तोड़ने से तमाम राजा सकुचा रहे थे और जनक को लगने लगा था कि सीता अब कुअंारी रह जायेगी। आज के इस प्रगतिशील जमाने में भी ऐसी लड़की से विवाह करने के लिए कितने युवा तैयार होंगे, इसे आप समझ सकते हैं। शायद इस विवाह के कारण भी राम को अयोध्या का अभिजात् तबका स्वीकार नहीं कर सका और उन्हें वनवास की सजा मिली। अब वनवास को लीजिए। राम शबरी (जो वनवासिनी थी, आज की आदिवासी ) का जूठा बेर खाते हैं। वनवासियों के साथ ही रहते हैं। गरीब जनता के इस हद तक घुल-मिल जाते हैं कि एक साधारण गरीब-गुरबे की ही भांति उनकी पत्‍नी का भी अपहरण हो जाता है और तब राम आदिवासियों-वनवासियों की ही सेना तैयार करते हैं। (वह अयोध्या के भरत से सहायता नहीं मांगते) और लंका के रावण को पराजित कर सीता को मुक्त कराते हैं। यह राम के जीवन का एक अध्याय है जो बहुत ही प्रगतिशील तत्वों से जुड़ा हुआ है। एक बात ध्यान देने की यह भी है कि राम के इस जीवन का संस्कार विश्वामित्र ने किया है जो गैर ब्राह्मण हैं।
लंका विजय के बाद राम अयोध्या के राजा ही नहीं बल्कि ब्राह्मण वशिष्ठ के पौरोहित्य से भी जुड़ जाते हैं और अब देखिए कि राम का पतन शुरू हो जाता है। सीता के लिए आठ-आठ आंसू रोने वाले और संग्राम करने वाले राम उसकी अग्नि परीक्षा लेते हैं और अंतत: घर निकाला दे देते हैं। जो राम शबरी के झूठे बेर खाता था, अब शंबूक का सिर तराश लेता है और जिस राम की तुलसीदास ने 'रावण रथी, विरथ रघुबीरा` कहकर प्रतिष्ठा की है, वही राम अपने ही विरथ पुत्रों से रथी होकर संग्राम करता है। कोई आश्चर्य नहीं कि अपने ही पुत्रों के हाथ पराजित होने वाले राम ने सरयू में जल समाधि ले ली।
यह है राम का पतन। राजा बनकर राम, रावण से भी ज्यादा पतित हो जाता है। रामायण का यह अमर संदेश है कि यह राजपद व्यक्ति को भ्रष्ट बनाता है। मैंने तो इस रूप में रामायण को देखा है और उसे विश्व की अद्भुत साहित्यिक कृति मानता हूं।
आस्था विचित्र चीज है। जिन चीजों को हम विस्तार से नहीं जानते, उन्हीं चीजों के बारे में हम एक कल्पना कर लेते हैं और फिर यह कल्पना आस्था का रूप ले लेती है। गैलेलियो के जमाने में पादरियों का मानना था कि पृथ्वी ही केंद्र में है और सूर्य उसका चक्कर लगाता है। वे पृथ्वी को स्थिर और सूर्य को चलते हुए देखते रहे थे। विज्ञान की गहरायी में गये बिना यह उनकी आस्था हो गयी थी। गैलेलियो ने दूरबीन (तकनीक) और विज्ञान से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर बतलाया कि पृथ्वी ही सूर्य का चक्कर लगाती है तब पादरी समूह समेत पूरे यूरोप के लोगों को लगा कि गैलेलियो यह क्या कह रहा है। गैलेलियो उसी इटली के थे जहां की सोनिया रही हैं। गैलेलियो को सच कहने के लिए एकांतवास की सजा मिली थी। बाद में गैलेलियो ने दबाव में आकर यह भी कहा कि मैंने जो कहा वह गलत है। लेकिन यूरोप ने गैलेलियो को एक प्रतीक के रूप में लिया। गैलेलियो ने विश्व में तकनीकी क्रांति का सूत्रपात किया और आज की दुनिया गैलेलियो की दुनिया है, पादरियों की नहीं।
मैं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के उन ईमानदार अधिकारियों की प्रशस्ति करना चाहता हूं जिन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में ठीक-ठीक बात रखी। दूसरा हलफनामा तो गैलेलियो का दूसरा हलफनामा बनकर रह गया। आखिर उन्होंने क्या कहा? कुल मिलाकर उनकी बात यही थी कि राम के बारे में उनके पास पुरातात्विक साक्ष्य नहीं हैं। पुरातत्व इतिहास से जुड़ा विषय है। भारतीय इतिहास के विद्यार्थी यह जानते हैं कि न तो आदि, न प्राक् इतिहास में राम आते हैं, न ज्ञात इतिहास में। भारतीय इतिहास की ठोस शुरूआत हड़प्पा काल से होती है। फिर प्राक् वैदिक, वैदिक और उत्तर वैदिक काल आते हैं। अब वैदिक काल का पुरातात्विक प्रमाण मांगेंगे तो इतिहासकार ज्यादा से ज्यादा वेद ग्रंथ दे सकेंगे। इंद्र या पुरंदर के वज्रा मेरे जानते नहीं मिले हैं। कभी मिल जायेंगे, तो इससे इतिहास में एक नया मोड़ आयेगा। पुरातात्विक सर्वेक्षण से जुड़े लोग उसे दिखला सकेंगे। सौ साल पहले हमारे पास हड़प्पा, बुद्ध, अशोक आदि के पुरातात्विक साक्ष्य नहीं थे। उस समय सर्वेक्षण से यदि इनके प्रमाण मांगे जाते तो वे यही कहते कि हमारे पास ठोस प्रमाण नहीं हैं। नालंदा, विक्रमशिला, कुम्हरार जैसी खुदाइयां सौ साल के भीतर की हैं। इन खुदाइयों से इतिहास के अध्ययन और सोच में मोड़ आये हैं। यदि भविष्य में राम, हनुमान और सीता के पुरातात्विक साक्ष्य मिले तो उससे भी इतिहास में मोड़ आयेंगे और तब भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण दिखला सकेगा कि यह राम की अस्थि है और यह जनक का शिव धनुष। लेकिन अभी आप भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण से यह आशा क्यों करते हैं कि वह कहीं-न-कहीं से कोई प्रमाण दे ही। गलती तो सर्वोच्च न्यायालय की है जो उसने राम को लौकिक दायरे में लाने की कोशिश की। लोग जिस आस्था की बात करते हैं उसे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने ही तोड़ा है। लोग इतने कायर हैं कि डर से सच कहना नहीं चाहते। उन्हें संविधान द्वारा दिये गये अभिव्यक्ति के अधिकार का वाजिब इस्तेमाल करना भी नहीं आता।
इसी अंक में राम और रामायण पर दो लेख दिये जा रहे हैं। श्री सुरेश पंडित का लेख रामायण पर द्रविड़ आंदोलन के नेता पेरियार ई.वी. रामास्वामी नय्यकर के नजरिये को सामने रखता है, तो कवि दिनकर का लेख राम कथा के विविध पक्षों को दर्शाता है। राम को लेकर हमारे यहां अनेक काव्य लिखे गये। वे हमारे मिथक हैं। जो लोग मिथकों को इतिहास में शामिल करना चाहते हैं, वे नहीं जानते कितनी मूर्खता कर रहे हैं। मिथक हमें परिकल्पनात्मकता प्रदान करते हैं। बुद्ध या मार्क्स या गांधी मिथक नहीं हो सकते। उन्हें जब हम मिथक बनाना चाहेंगे तो यह भी मूर्खता होगी।
राम का सबसे खूबसूरत प्रयोग भक्तिकाल के शूद्र कवियों ने किया। राम का नाम लेकर वे जातिवाद और ब्राह्मणवाद पर हमला कर रहे थे। पर उनके राम दशरथनंदन राम नहीं थे। आडवानी और सोनिया ने, सर्वोच्च न्यायालय और विहिप-भाजपा की मंडली ने कभी एक बार कबीर के राम पर भी विचार किया है? हम बार-बार किसी असभ्य घटना को मध्ययुगीन घटना बता कर उपहास करते हैं। लेकिन अपने सोच में हम मध्ययुग से पीछे जा रहे हैं। बुद्ध और महावीर के युग से भी पीछे। राम को लेकर, रामायण को लेकर कोई सांस्कृतिक बहस होगी तो उससे हमारे समाज को सांस्कृतिक उर्जा मिलेगी। लेकिन विमर्श और बहस की संस्कृति तो विकसित हो। पूजा और आस्था से केवल अंधविश्वास फैलेगा और यह अंधविश्वास समाज को अन्याय और असमानता के गह्वर में धकेल देगा।